3 - चकबन्दी व आगे का रास्ता


सुरेश स्वरोजगार अपनाना चाहता हैं और स्वयं अपना मालिक खुद बनना चाहता हैं। उसके पास तकरीबन 50 नाली भूमि है लेकिन उस पर वह परम्परागत फसल उगा कर अपने लिये 6 माह का तक अनाज नहीं उगा पाता है।

उसके गांव की आबो-हवा बागवानी, पुष्पोत्पादन व जड़ी बूटी उगाने के लिये अच्छी है। राज्य बनने के बाद उसने इस बारे में काफी कुछ पढ़ा है और सूचनायें भी जुटाई हैं। वह अपने खेतों पर परम्परागत फसलों से हटकर नकदी फसल अपनाकर खेती को अपनेे रोजगार का माध्यम बनाना चाहता हैं। सरकार भी चाहती हैं कि लोग भूमि से जुड़े और सरकार के नेतागण भी लोगों को स्वरोजगार का पाठ पढ़ाते रहे हैं। अधिकारी भी उनकी हां में हां मिलाते कह देते हैं कि यह करें वह करें। लेकिन कैसे? सुरेश की समस्या वहीं है, जो राज्य के हजारों सीमान्त व लघु पर्वतीय कृषकों की हैं यानि उनकी जमीन बिखरी हालत में हैं। सुरेश की यह जमीन 20-25 टुकड़ों में यत्र-तत्र फैली है। एक खेत यहां है तो दूसरा खेत कहीं और तीसरा अलग दूसरे गांव की सीमा में। एक जगह पर जमीन होती तो वह कुछ करता भी।

उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना के पीछे इस क्षेत्र भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक रूप से भिन्नता के अलावा यह कहा गया कि अलग राज्य बनने के बाद इसका नियोजन भी यहां की परिस्थितियों के अनुसार हो सकेगा। राज्य की स्थापना के 13 साल पूरे होने को हैं लेकिन अभी तक अभी तक यह मसला कागजों से धरातल पर नहीं उतर सका है।

पर्वतीय भूभाग में कृषि पर ध्यान न दिये जाने के कारण कृषि की दशा चिंताजनक है। कृषि क्षेत्र से भारत में सबसे अधिक आंशिक व पूर्णकालिक रोजगार मिला है लेकिन इस राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में रोजगार यह विशाल क्षेत्र अभी तक परम्परावादी राह पर ही चल रहा है। राज्य बनने के बाद की सरकारों ने यहां पर योजनाये ंतो चलाई लेकिन यह नहीं देखा कि जिस प्रकार यह योजनाये चल रही हैं। बहरहाल वह जमीन पर कम कागज पर ही चलने लगीं। आज आप किसी भी योजना की तह में जायें तो उसके निरुपण की हकीकत जान कर हैरत में पड़ जायेंगे। जिस बेहिसाब तरीके से गांव के लिये योजनायंे आ रही है उतने में तो यहां के गावों का कायाकल्प ही हो जाना चाहिये था लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि गांव से लोगों का पलायन होता चला गया। आश्चर्य तो यह यह कि खण्डहर हो चुके गावों के लिये आज भी योजनायें बन रही है।

राज्य के विकास के लिये तीन मुख्य संभावनाओं (थ्रस्ट एरिया) की पहचान की है उसमें दो हैं बिजली उत्पादन और पर्यटन। इनमंे से बिजली उत्पादन व पर्यटन क्षेत्र में मुख्य रूप से पूूंजीपतियों के ही माफिक ही रहा है और इस पर अत्यधिक जोर देने के कारण कुछ समय से हिमालय क्षेत्र को अनेक त्रासदियों आने लगी हैं। इस पर मनन चल रहा है कि किस सीमा तक ऐसा किया जा सकता है। लेकिन तीसरे थ्र्रस्ट एरिया पर अब तक की सरकारों ने कोई ध्यान नहीे दिया। राज्य में जमीन से उत्पाद बढाने के इस मुख्य संभावना क्षेत्र में असीम संभावनायें है। यहां की जमीन पर जड़ी-बूटी उत्पादन, बागवानी, औद्यानीकरण, पुष्पोत्पादन, सगन्ध पादप उत्पादन के एक दम माकूल है लेकिन इन पर अभी तक बस औपचारिक रूप से पहल हुई है।

आज हिमाचल का एक एक किसान लाखें रूपयो के फल बेचता है और उससे उसकी साल भर का खर्च चलता है। वहां पर नाम मात्र का पलायन हुआ है। लेकिन समस्या वही है कि जब यहां के निवासियों की भूमि टुकड़ों में बंटी हो तो छोटा व सीमान्त कृषक क्या कर सकता है भला।

राज्य के 13 जिलों में से तीन जिलों को उधमसिंहनगर व हरिद्वार पूर्ण रूप से मैदानी हैं तो देहरादून गढ़वाल, नैनीताल और चंपावत आंशिक रूप से मैदानी हैं जबकि बाकी पूर्ण रूपेण पर्वतीय हैं। मैदानी क्षेत्रों जहां अच्छी कृषि होती हैं तो वही पर्वतीय क्षेत्र के मात्र 13 से 15 प्रतिषत भाग पर खेती होती है जिसका लगभग 15 क्षेत्रफल सिंचाई योग्य है। पीढ़ी-दर-पीढी परिवारों में पैत्रिक भूमि के बंटवारे के कारण आज भूस्वामित्व ऐसी हालत में आ पहुँचा है कि उस पर योजना बना कर खेती करना असंभव है, जो लोग आज परम्परागत खेती से जुड़े हैं उनकी सालाना आय प्रति हैक्टेयर 10 से 12 हजार रु0 से अधिक नहीं है। अलाभकारी होने के कारण इसलिये या तो कृषकों ने अपने वे खेत बेकार छोड़ दिये हैं या फिर उन पर जंगल उगाये जा रहे हैं। आज वह बढ़ने की बजाय घटती जा रही है। पहाड़ में आज खेती को लेकर एक विचारधारा यह बन गई है कि यहां की जमीन में कुछ भी नहीं उगाया जा सकता है और कि इससे कोई लाभ नहीं है।

राज्य के पर्वतीय भागों में एक कृषाक की जमीन एक स्थान पर हो इसको लेकर ही चकबन्दी कराने की मांग उठती रही है ताकि सहां के किसान अपनी भूमि में किसी येाजना के साथ काम कर सकें। वर्तमान हालात में जब तक इस समस्या का निदान नहीं किया जाता है तब तक राज्य के पर्वतीय क्षेत्र की जनता को भूमि से जोड़ना असंभव सा है। पिछले बीस सालों से इस मुद्दे पर कई बहसें हो चुकी हैं और अनेक तर्क दिये जा चुके हैं। सभी राजनीतिक दल इस राय से सभी सहमत भी हैं किन्तु जब भी राज्य में चकबन्दी लागू करने की बात लागू करने की बात आती है तो सरकार द्वारा उसे कागजी कार्यवाही में उलझा कर रख दिया जाता है।

भारत के अन्य राज्यों में एक समय जमीन भूमि ऐसी ही स्थिति में थी। इस तथ्य को महसूसते हुये विभिन्न राज्यों की सरकारों ने इस दिशा में व्यापक भूमि सुधारों को लागू किया जिससे वहां पर कृषि के विकास का मार्ग प्रषस्त हुआ। बाद में इसी निर्णय को देश के अन्य राज्यों में भी लागू किया गया। उत्तर प्रदेश में भी यह लागू हुआ किन्तु उसके पर्वतीय क्षेत्र जो कि आज उत्तरांचल राज्य कहलाता है को इससे अलग रखा गया। यहां पर चकबन्दी या चकबन्दी जैसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था न होने के कारण यहां की गांवों में कृषि की दशा दयनीय हालत में पहुंच गई है।

किसानों के इस प्रकार खेती से विमुख होने के कारण यहां के गांवों में भारी बेरोजगारी है और उचित रोजगार दिशा के अभाव में गांव की नई पीढ़ी दिशाहीनता का शिकार होती चली जा रही है। सरकार की कोई भी योजना आज चकबन्दी के अभाव में सही रूप से फलित नहीं हो पा रही है। कृषि व उद्योग दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनसे भारी मात्रा में गैर सरकारी किस्म का रोजगार मिलता है, लेकिन उत्तरांचल के अधिकांश पहाड़ी जिले उद्योग शून्य हैं वहीं कृषि की अलाभप्रदता ने लोगों का मोह भंग कर रखा है। राज्य में सरकारी नौकरियों की संख्या और भी सीमित हो गई है और ग्रामीण युवा के सामने या तो निठल्ले बैठने या पलायन करने का ही विकल्प बचा है।

चकबन्दी के उदाहरण पहाड़ में अनेक जगहों पर देखे जा सकते हैं। जिन खेतों को हमने छोड़ दिया था उन पर आज नेपाली लाखों रुपयों की सब्जी उगा रहे है। उनकी मेहनत ओर समझ के कारण आज पहाड़ से सब्जी मैदानों में भी भी जाने लगी है। वे कई लोगों की बिखरी ख्ेाती को किराये पर लेकर एक चक बनाकर उस पर काम करते हैं लिहाजा एक योजना के तहत काम होने से जमीन पर उत्पादन होने लगता है। आज यहां से सब्जियां दिल्ली तक जाने लगी है। कभी हमारे पुरखों ने भी पहाडेां को काट काट कर उन पर चिनाई कर खेत बनाये और सदियों तक उन पर भरपूर अन्न उगाया। लेकिन जमीन के बंटने के कारण सब पुश्तेनी काम छोड़ पलायन करते चले जा रहे है।

हाल में ही सरकार ने राज्य में चकबन्दी को अनिवार्य को लागू करने का निर्णय लिया है। इच्छा शक्ति के अभाव के कारण ही यह देर से आया निर्णय हैं। यह ठीक वैसा ही निर्णय लगता है जैसा कि राज्य के गठन के समय हुआ था। सरकार ने जब अलग उत्तराखण्ड राज्य बनाया तो उस समय तक राज्य को कोई खाका किसी के मन में नहीं था। चकबन्दी लागू करने का निर्णय तो ले लिया है किन्तु अभी तक उसका प्रारूप तय नहीं हुआ है कि किस प्रकार से व कैसे चकबन्दी होगी। यदि अब तक प्रारूप तैयार हुआ होता तो उसके विभिन्न बिन्दुुओं पर चर्चा व मंथन का दौर चल रहा होता।

बहरहाल सरकार ने देर से मगर दुरस्त फैसला किया है जो कि एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन इससे आगे का रास्ता अभी तय किया जाना है। इसका प्रारूप ऐसा होना चाहिये जो सर्व स्वीकार्य हो ताकि जनभावनाओं के अनुरूप उसे जल्द से जल्द लागू किया जा सके। इसके लिये लम्बा होमवर्क होना बाकी हैं। इसके लिये बातचीत, गोष्ठी व सेमिनार के जरिये सुझाव लेने होंगे। इसके लिये पहाड़ी राज्य हिमाचल के चकबन्दी मेनुअल के अध्ययन के साथ उ0प्र0 सरकार के समय उत्तराखण्ड के लिये बनाये चकबन्दी प्रारूप को भी सामाने रखना होगा। अध्ययन के लिये जाना होगा। इसके लिये राज्य के नये हालत व सरकारी योजनाओं यथा मनरेगा व नई खाद्य सुरक्षा योजना सहित दूसरी योजनाओं यथा बीस सूत्रीय कार्यक्रम, एकीकृत ग्राम्य विकास कार्यक्रम, जलागम प्रबन्ध परियोजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, जवाहर रोजगार योजना,, सूखोन्मुखी क्षेत्र विकास कार्यक्रम, अम्बेडकर ग्राम, गांधी ग्राम, आदर्श ग्राम, अटल ग्राम, हरियाली योजना, आत्मा परियोजना सहित दूसरी येाजनाओं की पृष्ठभूमि को भी समझना होगा। ताकि इन येाजनाओं का सीधा लाभ चकबन्दी करने वाले को मिल सके। इसके अलावा चकबन्दी अपनाने वाले गांवों के लिये कुछ नई योजनाओं को भी बनाना होगा। साथ ही चकबन्दी से पहले जहां की जमीन को बेचने के नियमों पर भी गम्भीरता से विचार करना होगा।